21 April 2015

ग़ज़ल - ज़रा आवाज़ दे उसको बुला तो

न जाने कितनी आवाज़ें हमारे साथ हमारे कदमों से लिपट कर ताउम्र बेसाख़्ता चलती रहती हैं। उनमें से कई तो गुज़रते वक़्त के साथ दम तोड़ देती हैं तो कुछ ताउम्र पाँव में घुँघरू बन कर छन-छन बजती रहती हैं। इन्हीं आवाज़ों में कहीं, हमसे बहुत पीछे छूटा हमारा मुहल्ला है, तो कहीं बेलौस यारियाँ हैं और उन्हीं में ही कहीं एक अनकहे प्यार का टुकड़ा भी है …


ज़रा आवाज़ दे उसको बुला तो
न लौटे, फिर वो शायद, अब गया तो

तेरी आँखों का साहिल है कहाँ तक !
मैं उस से पूछता ये.… पूछता तो

भरा है खुश्बुओं से तेरा कमरा
पुराने ख़त सलीक़े छुपा तो

मैं ख़ुद को लाख भटकाऊँ भी तो क्या !
तुम्हीं तक जायेगा हर रास्ता तो

मेरी ख़ामोशियाँ पहचान जाता
मुझे अच्छे से गर वो जानता तो

है जिनकी सरपरस्ती हम पे काबिज़
बुतों में ढल गये वो देवता तो

बिना सोचे ही तुम ठुकरा भी दोगे
तुम्हारा मशविरा तुम को मिला तो

भरोसे की ही बस सूरत बची फिर
दिया अपना जो उसने वास्ता तो

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{Painting by Andrea Banjac}

5 comments:

Unknown said...

वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

Sanju said...

Very nice post..

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर उम्दा रचना ..

Ankit said...

आप सभी का शुक्रिया

संजय भास्‍कर said...

उम्दा रचना ..