04 July 2012

ग़ज़ल - अपने वादे से मुकर के देख तू

आहिस्ता-आहिस्ता मुंबईया बारिश, शहर को अपनी उसी गिरफ्त में लेती जा रही है, जिसके लिए वो मशहूर है। यकीनन इस दफ़ा कुछ देर ज़रूर हुई मगर उम्मीद तो यही है कि बचे-खुचे वक़्त में उसकी भी कोर कसर  पूरी हो जाएगी। अगर आपके शहर में बारिश नहीं पहुंची है तो जल्दी से बुला लीजिये और अगर पहुँच चुकी है तो लुत्फ़ लीजिये।

 ('जुहू बीच' पर कुछ बेफ़िक्र लहरें )
फिलहाल तो मैं यहाँ पर आप सब के लिए अपनी एक हल्की -फुल्की ग़ज़ल छोड़े जा रहा हूँ। पढ़िए और बताइए कैसी लगी? 

अपने वादे से मुकर के देख तू
फिर गिले-शिकवे नज़र के देख तू

इक नया मानी तुझे मिल जायेगा
मेरे लफ़्ज़ों में उतर के देख तू

कोई शायद कर रहा हो इंतज़ार
फिर वहीं से तो गुज़र के देख तू

हर किनारे को डुबोना चाहती
हौसले तो इस लहर के देख तू

ज़िन्दगी ये खूबसूरत है बहुत
हो सके तो आँख भर के देख तू

ख़्वाब की बेहतर उड़ानों के लिए
नींद के कुछ पर कतर के देख तू

फूलती साँसें बदन की कह रहीं
आदमी कुछ तो ठहर के देख तू

कह रही 'ग़ालिब' की मुझ से शायरी
डूब मुझ में फिर उभर के देख तू