कभी-कभी किसी ख़याल को पकड़ना, किसी साये को पकड़ने जैसा लगता है। वो
अपना भी हो सकता है और पराया भी। वो ख़याल जिसके पैदा होने या ख़त्म
होने के बारे में फ़िज़ूल की कई बहसें भी की जा सकती हैं, और यक़ीनन की भी जाती
हैं। जबकि ये ख़याल भी तो एनर्जी की तरह हैं जो एक अवस्था से दूसरी अवस्था
में बदलते रहते हैं। वैसे ही जैसे कभी कोई ख़याल लफ़्ज़ का जामा ओढ़ कर ग़ज़ल बन जाता
हैं तो कभी गीत तो कभी कुछ और ........
क्या करने निकले थे, क्या कर बैठे हैं
शब की गिरहें खोलेंगे ये सोचा था
नीदों से आँखें उलझा कर बैठे हैं
फर्क़ नहीं अब कुछ बाकी हम दोनों में
अपना लहजा भी तुझ सा कर बैठे हैं
भूल गए असली शक्लें धीर-धीरे
लोग मुखौटों को चेहरा कर बैठे हैं
आज मुखालिफ़ है अपना साया तक भी
आज मुखालिफ़ है अपना साया तक भी
हम कितना ख़ुद को तन्हा कर बैठे हैं
आज ख़रीदी झोली भर के खुशियाँ पर
कूवत से ज़्यादा खर्चा कर बैठे हैं
सिर्फ गरज के आस बंधा जाते हैं इक
ये बादल कुछ तो सौदा कर बैठे हैं
दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठने में