16 November 2011

ग़ज़ल - काढ देंगे सहर उजालों की

पिछले महीने दीपावली में सुबीर संवाद सेवा पे आयोजित तरही मुशायरे के लिए ये ग़ज़ल कही थी। कुछ नए शेर जुड़े हैं और कुछ पुराने शेरों में थोड़ी सी और छेड़खानी कर के, आखिरकार ये ग़ज़ल आप से गुफ़्तगू करने के लिए यहाँ है।


(एक खूबसूरत सुबह गुप्त-काशी, उत्तराखंड की)

क़र्ज़ रातों का तार के हर सू
एक सूरज नया उगे हर सू

काढ देंगे सहर उजालों की
बाँध कर रात के सिरे हर सू

तेरे हाथों का लम्स पाते ही
एक सिहरन जगे, जगे हर सू

रात टूटी हज़ार लम्हों में
ख़ाब सारे बिखेर के हर सू

मेरे स्वेटर की इस बुनावट में
प्यार के धागे हैं लगे हर सू

चाँद को गौर से जो देखा तो
जुगनुओं के लिबास थे हर सू

खेल दुनिया रचे है रिश्तों के
जिंदगानी के वास्ते हर सू

चोट खाया हुआ मुसाफिर हूँ
साथ चलते हैं मशविरे हर सू

ख़त्म आखिर सवाल होंगे क्या?
मौत के इक जवाब से हर सू

11 October 2011

जन्मदिन मुबारक गुरु जी.......


यूँ तो हर दिन, महिना, साल अपने में कुछ ख़ास छिपाए रखता है और अपने हिस्से की कहानी का वो पहला गवाह व वजूद भी खुद ही होता है. लेकिन जब बात सन १९७५ की निकलती है तो कुछ बातें जिनकी जुगलबन्धी मेरे ज़ेहन से हो गई हैं, अचानक ही सांस लेने लगती हैं. उनमे से एक हिस्सा फिल्मों ने कब्ज़ा रखा है (शोले, आंधी और शोले की आंधी में जो माँ के चमत्कार से हिट हो पाई, जय संतोषी माँ सिर्फ यही तीनों याद आती हैं). अब इससे आगे बढ़ के साल और महीनो से फिसलकर अगर दिनों की ओर चलूँ तो १९७५ का एक दिन पहेली सा सामने आ कर खड़ा हो जाता है. वो है १५-५-७५ (पंद्रह पांच पिचहत्तर)? न जाने इस दिन में ऐसा क्या छिपा हुआ है जिससे गुलज़ार ने इसे अपनी नज्मों के ठिकाने का पता दे दिया. और पिछले तीन-एक सालों से मुझ से जुड़ा इसी १९७५ का एक और बहुत ही ख़ास दिन है ११-१०-१९७५ जो मेरी अधिकतर अबूझ और उटपटांग पहेलियों और ग़ज़लों की गुत्थमगुत्था का जवाब बन गया है. वो दिन है, मेरे श्रद्धेय गुरुवर पंकज सुबीर जी का जन्मदिन.

ऐसा क्या ख़ास है ११ अक्टूबर १९७५ में, वैसे कुछ भी तो नहीं, है तो बस ये ही कि आम दिनों से दिखने वाले इस दिन को आज से ३६ बरस पहले जन्मे पंकज पुरोहित नाम के शख्स ने, माँ सरस्वती के आशीर्वाद और अपनी कलम की धार से पंकज सुबीर के जन्मदिन के रूप में चिन्हित करवा दिया है.



अपनी कहानियों से पाठकों को, रचनाशीलता के सागर में गोते लगवाने वाले पंकज जी की पंकज पुरोहित से पंकज 'सुबीर' बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. पूरी कहानी कह पाना तो मेरे बूते की बात नहीं है, हाँ मगर उस कहानी से एक हिस्सा जो "सुबीर" तख्खलुस से जुड़ा हुआ है, आप सभी को बताता चलूँ.

बात तब की है, जब लेखनी ने रफ़्तार पकड़ ली थी, और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन शुरू हो चुका था. लेखक के नाम के रूप में अब भी नाम पंकज पुरोहित ही जा रहा था. रचनाएं, हिंदी साहित्य में अपना स्थान बना रही थी और साथ-साथ पाठकों द्वारा भी सराही जा रहीं थी. मगर, पाठकों के अधिकतर शुभकामना व बधाई पत्र, सीहोर के पंकज पुरोहित को नहीं वरन पंकज पुरोहित नाम से ही रचनाओं का सृजन कर रहे, एक दूसरे शख्स के पास पहुँच रहे थे. एक ही नाम और एक ही काम की ये विचित्रत्त्ता भी अनूठी थी. मगर, इस उलझन को सुलझाने का उपाय क्या?

(घुग्घू कहानी तो आपने पढ़ी होगी, ऐसे ही एक घुग्घू की तलाश में)


एक विचार ये सूझा कि पंकज पुरोहित में से सिर्फ पंकज नाम से ही आगे बढ़ा जाए लेकिन दूजे ही पल ये विचार कौंधा अगर पंकज पुरोहित नाम का कोई और भी शख्स हो सकता है तो पंकज नाम के साथ तो इसकी संभावनाएं और भी बढ़ जायेंगी! फिर इस बात का ये निष्कर्ष निकला कि वक़्त आ चुका है कि पंकज नाम में एक तख्खलुस जोड़ा जाए, लेकिन फिर वही यक्ष प्रश्न कि वो तख्खलुस अगर हो तो आखिर क्या हो, जो कम से कम किसी के नाम से आसानी से न मिलें और खासकर साहित्य में तो नहीं ही.

ये अगर-मगर की स्थिति उन्होंने एक दिन अपने बचपन के दिनों के मित्र के सामने रखी, तो मित्र हँस के बोला चलो अच्छा हुआ कि मैं इस स्थिति में आज तक नहीं फँसा. इस बात पर सवाल उठा कि भाई क्यों, आखिर ऐसा क्या है तुम्हारे नाम में! तो मित्र बोला, ये बात तो मैं भी नहीं जानता, हाँ लेकिन मुझे आज तक मेरे नाम से मिलता कोई दूसरा शख्स नहीं मिला. चाहे तो तुम भी ढूंढ के देख लो, मिल जाए तो मुझे भी बताना. बात आई-गई होते-होते रह गई. वाकई कुछ दिनों की माथा-पच्ची के बाद भी दोस्त के नाम से मिलता खोजे न खोजते कोई शख्स न मिला. अगली मुलाकात में उस मित्र से बोले कि वाकई तेरे नाम से मिलता कोई दूसरा नाम नहीं मिला और इसी बीच मेरी भी तख्खलुस की तलाश पूरी हुई, मुझे अपना तख्खलुस मिल गया है. मित्र ने कहा ये तो बहुत अच्छा हुआ, वैसे तुने तख्खलुस क्या रखा है? तो जवाब आया, तेरे नाम से बेहतर और क्या मिलता इसलिए मित्र सुबीर तेरे ही नाम को अपना तख्खलुस "सुबीर" बना लिया है. अब ये बता, पंकज 'सुबीर' जँच रहा है न!




अरे जाते-जाते याद आया आज तो फिल्मों के शहंशाह का भी जन्मदिन है. चलते-चलते, "सदी के महानायक उर्फ़ कूल-कूल तेल के सेल्समैन" को भी जन्मदिन की शुभकामनाएं.

23 September 2011

ग़ज़ल - जो मेरा है वो तेरा है, जो तेरा है वो मेरा है

एक पुरानी ग़ज़ल, मगर आप सब के लिए थोड़ी बहुत नई हो सकती है. कुछ शेर इसके शायद आपने पहले भी सुने हों, तो उन सुने हुए शेरों के साथ कुछ अनसुने शेर ग़ज़ल की शक्ल में हाज़िर हैं.

बहरे हजज (१२२२-१२२२-१२२२-१२२२) पे लिखी ये ग़ज़ल अब आपसे रूबरू है. 

वो बीता है भुला उसको जो आगे है सुनहरा है
नया जज़्बा रगों में भर नया आया सवेरा है

मुहब्बत वो भरोसा है जो शर्तों में नहीं बंधता
जो मेरा है वो तेरा है, जो तेरा है वो मेरा है

नजरिया देखने का है महज़ इस ज़िन्दगी को बस
रुलाता भी ये चेहरा है, हँसाता भी ये चेहरा है

कभी गुस्सा हुए, चीखे बिना कुछ बात के उस पर
मगर वो प्यार की मूरत दुआओं का बसेरा है

तू आ के ज़िन्दगी मेरी मुकम्मल इक ग़ज़ल कर दे
अभी ये ज़ेहन में बिखरा हुआ आज़ाद मिसरा है

नीचे दिए हुए विडियो में इसी ग़ज़ल के कुछ शेर तहत में पढ़े हैं. विडियो सिद्धार्थनगर में आयोजित हुए कवि-सम्मलेन और मुशायेरे का है.



09 September 2011

बीते दिनों.........


इस ब्लॉग को चुप्पी ओढ़े कई दिन बीते, या थोडा अच्छे से हिसाब लगाया जाए तो एक-आध महीने ऊपर हो गए थे तो सोचा क्यों ना इस तरह पसर के बैठी हुई इस ख़ामोशी को तोडा जाए. हाँ, इसे तोडा जाए मगर आखिर किस से, किसी ग़ज़ल से या कुछ बातों से या उन सबसे इतर किसी और चीज़ से.


ग़ज़लगोई से अलग, बीते दिनों भारतीय फिल्म डिविसन के लिए एक Eye Donation Campaign के लिए कुछ लिखने का मौका मिला तो कुछ कहने की कोशिश की थी, एक अच्छे प्रयास के लिए कुछ लफ्ज़ दिए थे, आज उसी से आपको रूबरू करवा रहा हूँ. इस के लिए खासतौर से शुक्रगुज़ार हूँ कमल दा और आशीष दा का.



संगीत और आवाज़ - अरनब चक्रबोर्ती
निर्देशन - शालिनी शाह
सिनेमैटोग्राफी - राजेश शाह व काकू दा



चलते-चलते आपके लिए, अभी पिछले महीने अगस्त महीने की २८ तारिख  को नैनीताल में Run2live संस्था द्वारा नैनीताल मानसून मैराथन का आयोजन किया गया. इस मानसून मैराथन में इस बार की थीम  "Care for the Old Age" थी.    इसी प्रयास  के लिए मैंने कलम से कुछ अल्फाज़ देने की  कोशिश की थी, गीत के बोल अंग्रेजी में हैं. आपके लिए ये गीत छोड़ जा रहा हूँ,   आप भी सुनिए और बताइए कैसा बन पड़ा है.





संगीतकार - कमल पन्त
आवाज़ - रवि चौधरी

इन दोनों गीतों के बोल अगर आपको ज़रा भी आपको पसंद आते हैं तो इसमें संगीतकार और गायक का भी उतना ही या उससे ज्यादा योगदान है जिन्होंने बहुत खूबसूरती और मिठास से इसमें जादू ला दिया है. साथ में पहले गीत में निर्देशन और सिनेमैटोग्राफी ने लफ़्ज़ों को निखारने में एक अहम् किरदार निभाया है.

30 June 2011

एक मुकम्मल शाम - नवोन्मेष महोत्सव २०११ "कवि सम्मलेन-मुशायेरा"

वो वक़्त का टुकड़ा जो सिद्धार्थनगर में नवोन्मेष महोत्सव २०११ के कवि सम्मलेन-मुशायेरे के लिए ही शायद तय हुआ था. २५ जून की शाम का अंदाज़ और मिज़ाज कुछ अलग सा था. मुंबई से सिद्धार्थनगर पहुँचने का सफ़र जो अपने में एक मुकम्मल सफ़र था, ख़ुद में एक दिन और दो रातें समेटे हुआ था , वो भी शायद इसी वक़्त के इंतज़ार में था.

यूँ तो ये सफ़र लम्बा बहुत था मगर लम्बा कहीं से भी नहीं लगा, भोपाल से गुरु जी का साथ, कानपुर से रविकांत भाई और लखनऊ से कंचन दीदी, इस सफ़र में जुड़े. इस सफ़र का वो एक दिन जो बाहर मौसम की बरसात में महक रहा था वही ट्रेन में गुरु जी के ज्ञान से भीनी-भीनी खुश्बू दे रहा था. 
उस पूरे दिन में यूँ तो हर लम्हा सहेजने लायक है मगर एक दिलचस्प किस्सा जो गुरु जी को हमेशा याद रहेगा कुछ अलग ही रंग लिए था, बातों ही बातों में कई मुद्दे छिड़े, कई बातें निकली, और सब कुछ सुहावना बन गया.


सिद्धार्थनगर में अज़ीज़ों का जमावड़ा एक अलग ही रंग लिए हुए था, और शाम को इन सब अज़ीज़ों के साथ-साथ जनाब राहत इन्दौरी साब के साथ मंच साझा करने का जूनून अपने अलग ही चरम पे था. इस बेसब्री को कम करते हुए शाम भी जल्दी ही आ गयी. बहुत अच्छा कार्यक्रम रहा, नवोन्मेष संस्था के अध्यक्ष विजित सिंह ने अपने साथी दोस्तों के साथ आयोजन में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, और उनके साथ में वीनस भाई भी तन मन से सिद्धार्थनगर में पिछले एक-दो दिनों से लगे हुए थे. ये मुलाकात, ये लम्हा ज़िन्दगी की डाइरी में एक यादगार और खूबसूरत लम्हें की शक्ल में दर्ज हो चुका है.


एक मतला और चंद शेर जो नवोन्मेष महोत्सव में आयोजित कवि सम्मलेन-मुशायेरे में सुनाये थे, आपके लिए हाज़िर हैं;
नए सांचे में ढलना है अगर तो फिर बदल प्यारे.
तू अपनी सोच के पिंजरे से बाहर अब निकल प्यारे.

झुकाएगा नहीं अब पेड़ अपनी शाख पहले सा,
तेरी चाहत अगर इतनी है ज़िद्दी तो उछल प्यारे.

सड़क पर हम भी उतरेंगे, हमारी भी हैं कुछ मांगें
नया फैशन है निकला देश में ये आजकल प्यारे.

(चलते-चलते एक बात और, गौतम भैय्या और मुझे हम दोनों के काव्य-पाठ के लिए गुरु जी की तरफ से एक ख़ास, या यूँ कहें कि बेहद ख़ास तौहफा मिला है जो किसी और से साझा नहीं किया जा सकता इसलिए वो क्या है उसके बारे में पूछने की कोशिश करना फ़िज़ूल ही जायेगा, आप बस रश्क कर सकते हैं.)

18 May 2011

ग़ज़ल - मेरा पागलपन मशहूर ज़माने में

आजकल उफनती हुई गर्मी, जिस्म से पसीने की बहती हुई धार ने जीना दुश्वार कर रखा है, वैसे गर्मी से मुलाक़ात सुबह और शाम को ही होती है क्योंकि दिन तो ऑफिस में गुज़र जाता है मगर एक ज़रा सी मुलाक़ात भी गज़ब ढा देती है। लेकिन ये भी मौसम का एक रूप ही है, जिसका भी अपना अलग ही मज़ा है, अलग ही यादें हैं। गर्मी से जुड़ी सबकी यादें आजकल गुरु जी के ब्लॉग 'सुबीर संवाद सेवा' में चल रहे ग्रीष्म तरही मुशायरे में अलग ही आनंद दे रही हैं।



आज आप से रूबरू जो ग़ज़ल है वो 'साढ़े पांच फेलुन' में लिखी गयी है। आप जब तक इस ग़ज़ल के शेरों से शेर दर शेर गुज़रिये मैं तब तक अगली ग़ज़ल की बुनाई पूरी करता हूँ।


मेरा पागलपन मशहूर ज़माने में
एक अदा तो है तेरे दीवाने में

आँखों-आँखों में सारी बातें कह दी
तुम भी आ बैठे दिल के उकसाने में

शाम घुली है शब में ये जैसे-जैसे

चाँद उतर आया मेरे पैमाने में

सौंधी-सौंधी खुश्बू यादों की देते
भीगे-भीगे ख्वाब रखे सिरहाने में

इन रिश्तों की गाँठ न खोलो तो बेहतर
उम्र लगेगी फिर इनको सुलझाने में
 
सूखे फूल, पुराने ख़त, बिसरी यादें
मिल जाते हैं हर दिल के तहखाने में

[हिंदी चेतना जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित]

24 January 2011

ग़ज़ल - सोचिये, सोचना ज़रूरी है

जब मैंने ये खबर पढ़ी या कुछ ऐसी ही ख़बरें जिनमे बस स्थान में परिवर्तन रहा होगा, पढता हूँ तो लगता है कि वाकई हमने सोचना और सोच के काम करना बंद कर दिया है। हम सभी आँखें मूँद कर झुण्ड के झुण्ड में चले जा रहे हैं कदम से कदम मिलकर ना जाने किस ओर, इसका भी शायद ही किसी को पता हो ?

जब हमें कुछ सही करने का दायित्व मिलता है तो हम उससे नज़र चुरा कर, वक़्त की कमी का बहाना बना कर आगे निकल जाते हैं, और अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं और ऐसा चल रहा था, चल रहा है और शायद आगे भी चलता रहेगा...........क्योंकि वक़्त बदल जायेगा मगर हम नहीं।

(चित्र:- आभार निखिल कुंवर)

सोचिये, सोचना ज़रूरी है
आग को भी हवा ज़रूरी है

सोचिये है ख़ुदा ज़रूरी क्यूँ ?
छोड़िये…गर ख़ुदा ज़रूरी है

रूठ कर जाते शख़्स की जानिब
कम से कम इक सदा ज़रूरी है

आ मेरी नींद के मुसाफ़िर आ 
ख़ाब की इब्तिदा ज़रूरी है

ज़िन्दगी जीने का सबब माँगे
मैंने पूछा…कि क्या ज़रूरी है

दो जुदा रास्ते बुलाते हैं
और इक फैसला ज़रूरी है

अपने हालात क्या कहे दुनिया
बस ये जानो… दुआ ज़रूरी है

अजनबी शहर में मुसाफिर से
रास्तों की वफ़ा ज़रूरी है

जिस्म दो एक हों मगर पहले
रूह का राब्ता ज़रूरी है

२१२२-१२१२-२२/११२
बहरे खफीफ मुसद्दस मख्बून मक्तुअ अस्तर