15 March 2010

मेरे कुछ आवारा साथी

कुछ ज्यादा ही ख़ामोशी हो गयी इन दिनों इस ब्लॉग से मगर आज ये ख़ामोशी मेरे कानों में जोर से चीख के गयी है. चलिए इस चुप्पी को तोडा जाये. बिना पोस्ट के दोस्तों कौन सा मुझे अच्छा लग रहा था मगर वक़्त था कि इजाज़त ही नहीं देता था मगर आज बहुत मिन्नतों से माना है. 

मुंबई की ज़िन्दगी में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है और आप तकरीबन हर चीज़ खरीद भी सकते हो मगर कमबख्त वक़्त नहीं. इसी ज़िन्दगी का एक हिस्सा अब मैं भी बन गया हूँ वैसे तो ये एक बहाना ही है नहीं लिखने का लेकिन अगर सच का चश्मा पहन के देखता हूँ तो दिखता है कि लिखने के लिए कुछ ख्याल ही नहीं थे और जो ज़ेहन में आ भी रहे थे उनको लिख के कलम से गद्दारी करने की गवाही ये दिल मुझे नहीं देता था. सुबह घर से ऑफिस और शाम को ऑफिस से घर की भागमभाग नए ख्यालों को कोई शक्ल नहीं दे पा रही थी कुछ आता भी तो लोकल की भीड़ में आके खो सा जाता था. 

अब ज़िक्र लोकल का आ ही गया है तो कुछ उसके बारे में भी कहता चलूँ, मुंबई की लोकल (लोकल ट्रेन) का सफ़र जो पहली दफा करेगा वो तो तौबा तौबा करने लगेगा अरे सफ़र करना तो दूर की बात रही उसकी सिम्त देख भी ले तो चढ़ने से घबरा जायेगा और सोचेगा चलो यार बस से निकला जाये या फिर ऑटो की  सवारी कर लें. कुछ ऐसा ही शुरू में मेरे साथ भी हुआ था मगर अब तो उसका भी मज़ा आने लगा है, वो लपक के ट्रेन में चढ़ना और आपके पीछे की भीड़ अपना पूरा ज़ोर आपके ऊपर लगाके दो क़दमों को रखने लायक जगह बना देती है, अपने लिए भी, आपके लिए भी. जब सांस लेने का मन करे तो सर ऊपर उठा के वो भी ले लो लेकिन पहले तो इस रस्साकशी को देख के ही घबराहट हो जाती थी वो दरवाजे के बाहर निकली लोगों २ सतहें (अन्दर का मंज़र छोडिये), बस एक सिरा पकड़ लो और सवार हो जाओ बाकी सब कुछ गर्दी (भीड़ )कर देगी, अगर उतरना है तो गर्दी उतार भी देगी और अगर इस गर्दी का मन नहीं किया तो आप अपने स्टॉप से एक या दो स्टॉप आगे उतरोगे.

लगता है हर कोई भाग रहा है और भागे जा रहा है...........और आपको भी भागना पड़ेगा नहीं तो पीछे वाले आपको भगाते हुए अपने साथ ले चलेंगे, इतना ख्याल यहाँ सब लोग एक दुसरे का रखते हैं. इतनी भीड़ है मगर एक तन्हाई सी पसरी रहती है हर कोई इंतज़ार कर रहा होता है कि कब उसका स्टॉप आये और वो इस पिंजरे से छूट के अपनी दुनिया कि ओर उड़ चले. कोई अपने में गम है तो कोई रेडियो FM में बजते हुए गानों की धुनों में सर घुमा रहा है क्योंकि पैर को हिलाने की इजाज़त नहीं है, कोई भगवान् को याद कर रहा है (हनुमान चालीसा, बाइबिल, क़ुरान की आयतें आदि पढ़ रहा है), कोई अखबार के सहारे समाज से रूबरू हो रहा है, तो कोई ग़ज़ल सोच रहा है (मैं).........................
इसी उधेरबुन में, एक अशआर बना था जिससे अब आप सब भी रूबरू हो जाइये.

शाम सवेरे करता रहता दीवारों से पागल बातें.
मेरे कुछ आवारा साथी, तेरे ख़त औ' तेरी यादे.
जिसको देखो ख़ुद में गुम है कैसा शहर "सफ़र" ये तेरा
आदम तो लगते हैं लेकिन चलती फिरती जिंदा लाशें.

जल्द ही आता हूँ एक ग़ज़ल के साथ...................अरे सच कह रहा हूँ इस बार ये जल्दी एक महीने से पहले आ जाएगी.

7 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर और रोचक!
भारतीय नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!

गौतम राजऋषि said...

अरे जियो अंकित मियां...जियो! देर आये लेकिन दुरूस्त आये...

इस मतले पे मिट गया..बिछ गया। अरे वाह-वाह...भई वाह-वाह!! दिल से...वाह-वाह!!

टंकन-त्रुटि- खुद में गम=खुद में गुम

सिद्धार्थ प्रियदर्शी said...

अंकित जी !!
आप तो अंतर्ध्यान ही हो गए थे....लम्बे अंतराल के बाद आये, पर क्या जमा के मारा है !!
बड़े ही सुन्दर अशआर बने हैं........" तेरा ख़त औ' तेरी यादें"....वाह !! क्या बात है...!!

वीनस केसरी said...

लग रहा है मुम्बई आपको जम गई :)

बढ़िया दुक्की है अगली पोस्ट में छक्के का इंतज़ार है :)

कुश said...

चलो लोकल ट्रेन का कुछ तो फायदा हुआ.. :)
जल्दी आओ ग़ज़ल लेकर.. हम यही बैठे है तब तक..

नीरज गोस्वामी said...

ज़िन्दगी क्या है ये जानने के लिए लोकल ट्रेन में जरूर चढ़ना चाहिए... जगजीत साहब की आवाज़ में गयी ग़ज़ल का शेर है...." धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो...ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो." उसी को सुधारते हुए कहना चाहिए" ज़िन्दगी क्या है लोकल में चढ़ा कर देखो..." पहले जब मुंबई आया करता था तो एक आध बार लोकल में घूमे बिना नहीं वापस नहीं जाता था लेकिन अब मुंबई के पास हो कर भी लोकल का सफ़र नहीं कर पाता हूँ...पर उसमें की यात्रायें अभी भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा हैं...
दिलचस्प खाखा खींचा है आपने...ग़ज़ल का इंतज़ार है.
नीरज

Ankit said...

@ गौतम भैय्या, टंकण त्रुटी की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार.
@ नीरज जी, किसी दिन आपके साथ लोकल ट्रेन की यात्रा का सौभाग्य दीजिये