27 November 2009

ग़ज़ल - वो परिंदे नए चहचहाते रहे

वैसे तो ये ग़ज़ल, आप से गुरु जी के ब्लॉग पे तरही मुशायेरे में रूबरू हो चुकी है. कुछ पुरानी भी हो गयी है मगर कहते है ना पुरानी चीज़ या कहें की ग़ज़ल और निखरती है तो इसी आस में इस ग़ज़ल को यहाँ ले आया.

वैसे जब गुरु जी से मुलाकात हुई तो कुछ गलतियों से या कहूं बहुत सी गलतियों से साक्षात्कार होना लाजिमी था. उन्ही में से एक गलती इस ग़ज़ल में छुपी हुई थी इस ग़ज़ल के एक शेर का मिसरा पहले यूँ था "इक शरारत दुकां ने करी उससे यूँ", इसमें एक लफ्ज़ "करी" आया था जो सही कहें तो सही नहीं है वो तो हम अपनी आम बोलचाल की भाषा में इसे शामिल कर चुके है और जबरदस्ती इसका वजूद बना रहे हैं,तो उसी को सुधार कर ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ.
अर्ज़ किया है.............

साथ बीते वो लम्हें सताते रहे.
दूर जब तुम गए याद आते रहे.
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एक नकली हंसी ओढ़ के उम्र भर,
दर्द जो दिल में था वो छिपाते रहे.
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आसमां छूने का ख़्वाब दिल में सजा,
हम पतेंगे ज़मीं से उड़ाते रहे.
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दांव पेंचों से वाकिफ़ नहीं चुगने के,
वो परिंदे नए चहचहाते रहे.
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इक शरारत दुकां कर गयी उससे यूँ,
कुछ खिलौने उसे ही बुलाते रहे.
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खौफ हासिल हुआ हादसों से मुझे,
ख़्वाब कुछ ख़्वाब में आ डराते रहे.
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आंधियां हौसलों को डिगा ना सकीं,
दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे.

एक बात आप सभी को और बताते हुए चलता हूँ इस तरही मुशायेरे में अज्ञात शख्स (गुरु जी) के नाम से एक ग़ज़ल लगी थी जो गौतम भैय्या की पारखी नज़र से बच ना सकी, गुरु जी ने उस ग़ज़ल पे मात्र जी हाँ मात्र ४०-५० शेर लिखे थे जिसमे से सिर्फ कुछ ही हम सबको पढने को मिले थे.            

इस पोस्ट में अभी इतना ही, अगली पेशकश में एक नयी ग़ज़ल के साथ मिलूँगा आपसे, ये वादा रहा.
चलते-चलते परी और पंखुरी का एक चित्र छोड़ जा रहा हूँ..................
 

7 comments:

"अर्श" said...

सच अंकित पुरानी ग़ज़ल जब आती है तो उसकी परवरिश और ज्यादा बेहतरी
से हुई होती है और इसका कारन एक यह भी है के वो करी वाला शब्द
हमारे शामने आया , सच कहूँ तो बहुतेरे ऐसे शब्द है जो साहित्यिक रूप से
सही नहीं होती और हम उनका इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे है .... और
उनका वजूद बना हुआ है ... यही सब तो है जो सारी चीजें हमें गुरु जी
सिखाते हैं... ग़ज़ल खूब पसंद आई यहाँ भी और तरही में भी ...
पारी और पंखुरी को मेरे तरफ से भी खूब ढेर सारा प्यार देना और
चोकोलेट भी ... गुरु जी को प्रणाम कहना ...


अर्श

Amrendra Nath Tripathi said...

आप अच्छा लिख रहें हैं ...
बिना किसी परवाह के लिखते रहें ...
आप तो बखूबी जानते ही हैं ...
'' दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे ''

वीनस केसरी said...

वाह अन्कित भाई

भोपाल आपको खूब रास आया लगता है

खूब मौज हो रही है:)

गुरु जी का सानिध्य और आशीर्वाद मिल रहा है और क्या चाहिये

गजल निखर कर कहन को पूरा कर रही है सुन्दर गजल के लिये पुनह बधाई

नीरज गोस्वामी said...

अब चन्दन के पेड़ से लिपटे रहोगे तो खुशबू तो आएगी ही...चन्दन की ये भी खूबी है की जो उस से लिपटता है उसी के साथ उसकी खुशबू देर तक लिपटी चली आती है...हम बेताब हैं उस खुशबू को महसूस करने के लिए...वापस लौटो तो सही...
ग़ज़ल वहां भी याने तरही में भी अच्छी लगी और यहाँ भी...अच्छी चीज जहाँ होगी वहीँ अच्छी लगेगी...ये सच है की तुम अब बहुत खूब लिखने लगे हो..."आसमां छूने का खवाब...और ग़ज़ल का मक्ता" मेरी बात के सही होने के सबूत में पेश किया जा सकता है...
मुझे आपके "एक बनावट हंसी..." वाले शेर में बनावट लफ्ज़ पता नहीं क्यूँ खटक रहा है...हंसी मेरे हिसाब से बनावटी होती है...अगर गुरुने जी इसे ठीक कह दिया है बात ही ख़तम हो गयी...:))
पारी और पंखुरी की फोटो बहुत खूब है...इश्वर उन्हें तितलियों से उड़ने वाले पंख दे...
नीरज

Ankit said...

@ नीरज जी,
दरअसल ये ग़ज़ल तरही मुशायेरे की है, उसमे आई ग़ज़लों में गुरु जी केवल "बहर" को देखते हैं की वो सही है या नहीं, ये ग़ज़ल गुरु जी द्वारा इस्लाह नहीं की गयी है. वो तो जब हाल फिलहाल में गुरु जी से मिलना हुआ था तो बातों बातों में मैंने ये शेर उन्हें सुनाया था तो उन्होंने "करी" वाले लफ्ज़ के बारे में चर्चा की थी और उसे सुधारने के लिए कहा था.
मैं आपका बहुत शुक्रगुजार हूँ, आपने इस अहम् गलती की ओर मेरा ध्यान डलवाया, वाकई जब मैं दोबारा सोचने बैठा तो मुझे भी इस भयंकर गलती का एहसास हुआ और फिर मेरी गुरु जी से बात हुई तो उन्होंने भी कहा की 'बनावट' लफ्ज़ यहाँ पर सही नहीं है तो उस शेर को मैंने सुधार कर के लगा दिया है, मिसरा-ए-उला थोडा बदल दिया है.
आपका बहुत बहुत शुक्रिया

गौतम राजऋषि said...

ये तुम्हारी तरही का अंदाज़ तो मुशायरे में ही बहुत भाया था अनुज....अभी नीरज जी द्वारा एक त्रुटि की तरफ इंगित करना, इस अह्सास को पुख्ता कर गया कि इस्लाह हम जैसों के लिये कितना जरुरी है।

श्यामल सुमन said...

दांव पेचों से वाकिफ नहीं चुगने के

को ऐसा कर के

दांव पेचों से चुगने के वाकिफ नहीं

गाया तो मुझे अच्छा लगा। हो सके तो विचार कीजियेगा। सिर्फ आपके शब्दों का स्थान परिवर्तन भर किया है। उम्मीद है अन्यथा नहीं लेंगे।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com