13 March 2009

ग़ज़ल - देख ले मेरी नज़र से तू मेरे महबूब को

आप सभी को मेरा नमस्कार......................
सर्वप्रथम गुरु जी (पंकज सुबीर जी) को ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए शुभकामनायें।
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एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, काफिया ज़रा मुश्किल था.................

असलूब :- स्टाइल
मक्तूब:- ख़त
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देख ले मेरी नज़र से तू मेरे महबूब को।
अलहदा उसकी अदा, अलहदा असलूब को।
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हमसे पूछो कैसे काटी करवटों में रात वो,
ले लिया था हाथ में इक आप के मक्तूब को।
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छेड देता है ग़ज़ल बस आपका इक ख्याल ही,
कह रहे दीवानगी है, लोग इस असलूब को.
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है नही तस्वीर कोई पास मेरे आप की,
कर दिया है फ्रेम मैंने आपके मक्तूब को।
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ख्वाब देखू आपके दिन रात तो लगता है यू,
रख दिया हो मोतियों पे ओस भीगी दूब को।
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मखमली एहसास सा होता है मेरी रूह को,
जब "सफ़र" छिप के नज़र है देखती महबूब को।

7 comments:

"अर्श" said...

मैं ही बैठा रह गया देखता उस बाम पे
होश उड़ गए देख कर नाजे-खूब को........

बहोत खूब अंकित जी ढेरो बधाई आपको...
गुरु जी को सादर प्रणाम...

अर्श

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

वाह! बहुत खूब। जैसे गुरू वैसे चेले। लोटते रहे गज़ल की हरियाली में और देखते रहे कविता की दूब को:)

नीरज गोस्वामी said...

अंकित जी काफिया निभाने में आपने बहुत मेहनत की है...फिर भी असलूब मक्तूब महबूब लफ्ज़ दो बार आ गए हैं...जो अखरते हैं...हालाँकि आपने " हमसे पूछो कैसे काटी करवटों में रात वो...." जैसे हसीन शेर ग़ज़ल में कहे हैं ...आसान काफिये लेकर ग़ज़ल लिखें आपको मजा आएगा.
मेरी बात बुरी लगी हो तो क्षमा करें.

नीरज

Udan Tashtari said...

गुरु जी को बहुत बहुत बह्दाई और शुभकामनाऐं. बाकी गज़ल पर तो नीरज जी कह ही गये हैं. भाव उत्तम हैं.

गौतम राजऋषि said...

क्या बात है अंकित मियाँ...भई क्या बात ’ है नहीं तस्वीर कोई पास मेरे आप की / कर दिया है फ्रेम मैंने आपके मक्तूब को" सुभानल्लाह। इतने मुश्किल काफ़ियों को निभाना आपके बस की ही बात है..

Mumukshh Ki Rachanain said...

सुंदर भावों की अतिसुन्दर, अति कर्मठ प्रस्तुति.

बधाई स्वीकार करें.

चन्द्र मोहन गुप्त

विक्रांत बेशर्मा said...

बहुत खूब अंकित !!!!!!!!!